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Wednesday, 28 November 2018

*परनिंदा के दुष्परिणाम*

*परनिंदा के दुष्परिणाम*

राजा पृथु एक दिन सुबह सुबह घोड़ों के तबेलें में जा पहुंचे। तभी वहीं एक साधु भिक्षा मांगने आ पहुंचा। सुबह सुबह साधु को भिक्षा मांगते देख पृथु क्रोध से भर उठे। उन्होंने साधु की निंदा करते हुए बिना विचारे तबेलें से घोडें की लीद उठाई और उसके पात्र में डाल दी। साधु भी शांत स्वभाव का था सो भिक्षा ले वहाँ से चला गया और वह लीद कुटिया के बाहर एक कोने में डाल दी। कुछ समय उपरान्त राजा पृथु शिकार के लिए गए। पृथु ने जब जंगल में देखा एक कुटिया के बाहर घोड़े की लीद का बड़ा सा ढेर लगा हुआ है उन्होंने देखा कि यहाँ तो न कोई तबेला है और न ही दूर-दूर तक कोई घोडें दिखाई दे रहे हैं। वह आश्चर्यचकित हो कुटिया में गए और साधु से बोले "महाराज! आप हमें एक बात बताइए यहाँ कोई घोड़ा भी नहीं न ही तबेला है तो यह इतनी सारी घोड़े की लीद कहा से आई !" साधु ने कहा " राजन्! यह लीद मुझे एक राजा ने भिक्षा में दी है अब समय आने पर यह लीद उसी को खाना पड़ेगी। यह सुन राजा पृथु को पूरी घटना याद आ गई। वे साधु के पैरों में गिर क्षमा मांगने लगे। उन्होंने साधु से प्रश्न किया हमने तो थोड़ी-सी लीद दी थी पर यह तो बहुत अधिक हो गई? साधु ने कहा "हम किसी को जो भी देते है वह दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित होता जाता है और समय आने पर हमारे पास लौट कर आ जाता है, यह उसी का परिणाम है।" यह सुनकर पृथु की आँखों में अश्रु भर आये। वे साधु से विनती कर बोले "महाराज! मुझे क्षमा कर दीजिए मैं आइन्दा मैं ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा।" कृपया कोई ऐसा उपाय बता दीजिए! जिससे मैं अपने दुष्ट कर्मों का प्रायश्चित कर सकूँ!" राजा की ऐसी दुखमयी हालात देख कर साधु बोला- "राजन्! एक उपाय है आपको कोई ऐसा कार्य करना है जो देखने मे तो गलत हो पर वास्तव में गलत न हो। जब लोग आपको गलत देखेंगे तो आपकी निंदा करेंगे जितने ज्यादा लोग आपकी निंदा करेंगे आपका पाप उतना हल्का होता जाएगा। आपका अपराध निंदा करने वालों के हिस्से में आ जायेगा।
यह सुन राजा पृथु ने महल में आ काफी सोच-विचार किया और अगले दिन सुबह  से शराब की बोतल लेकर चौराहे पर बैठ गए। सुबह सुबह राजा को इस हाल में देखकर सब लोग आपस में राजा की निंदा करने लगे कि कैसा राजा है कितना निंदनीय कृत्य कर रहा है क्या यह शोभनीय है ??  आदि आदि!! निंदा की परवाह किये बिना राजा पूरे दिन शराबियों की तरह अभिनय करते रहे।
इस पूरे कृत्य के पश्चात जब राजा पृथु पुनः साधु के पास पहुंचे तो लीद का ढेर के स्थान पर एक मुट्ठी लीद देख आश्चर्य से बोले "महाराज! यह कैसे हुआ? इतना बड़ा ढेर कहाँ गायब हो गया!!"
साधू ने कहा "यह आप की अनुचित निंदा के कारण हुआ है राजन्। जिन जिन लोगों ने आपकी अनुचित निंदा की है, आप का पाप उन सबमे बराबर बराबर बट गया है।
  जब हम किसी की बेवजह निंदा करते है तो हमें उसके पाप का बोझ भी उठाना पड़ता है तथा हमे अपना किये गए कर्मो का फल तो भुगतना ही पड़ता है, अब चाहे हँस के भुगतें  या रो कर। हम जैसा देंगें वैसा ही लौट कर वापिस आएगा!

दूसरे की निंदा करिए और अपना घड़ा भरिए
हम जाने-अनजाने अपने आसपास के व्यक्तियों की निंदा करते रहते हैं: जबकि हमें उनकी वास्तविक परिस्थितियों का तनिक भी ज्ञान नही होता। निंदा रस का स्वाद बहुत ही रुचिकर होता है सो लगभग हर व्यक्ति इस स्वाद लेने को आतुर रहता है।

वास्तव में निंदा एक ऐसा  मानवीय गुण है जो सभी व्यक्तियों में कुछ न कुछ मात्रा में अवश्य पाया जाता है। यदि हमें ज्ञान हो जाये कि पर निंदा का परिणाम कितना भयानक होता है तो हम परमात्मा की  भक्ति  करके इस पाप से आसानी से बच सकते
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Tuesday, 27 November 2018

तम्बाकू खाना और पीना समझो गाय का खून पीना वो कैसे ❓

  1. 👉तम्बाकू खाना  और पीना समझो गाय का खून पीना वो कैसे ❓ 💐🏝💐🏝💐🏝💐
जानिए..
तम्बाखू, खाना महापाप कैसे ! आईये जानते  है।
एक राजा का साडू भगत [ऋषि ] था। एक दिन राजा ने अपने साडू के घर नियोता भेजा खाने का ।
 ऋषि की पत्नी ने कहा कि सुनो जी मेरी बहन के घर से नियोता आया है भोजन पर जाना है। साधु बोला कि रहने दे भाग्यवान हम कहां और वो कहां । उसकी पत्नी नही  मानी और राजा के घर भोजन कर अपनी कुटिया में दोनों लोट रहे थे तब उस ऋषि की पत्नी बोली सुनो जी हमें भी उनको भोजन के लिए बुलाना चाहिए। ऋषि बोला ठीक है मैं व्यवस्था करता हूँ। ऋषि के पास अपनी भक्तिधन के अलावा और कुछ नही था। वह अपने पुण्यो से स्वर्ग से कामधेनु गाय ले आया। और बड़ा सा टेन्ट लागा लिया ,आस पास के ऋषि भी बुला लिए।  राजा ने ऋषि को नीचा दिखने के लिए सैकड़ो सैनिक साथ ले लिये और ऋषि के घर भोजन पर चला  गया साधु ने अपनी सिद्धि से सारी तैयारी कर ली टेन्ट ,बैठने स्थान पर बढ़िया बिस्तर बिछा कर ,आदर सत्कार कर सभी को भोजन करने  के लिए आग्रह किया जब राजा ने देखा कि  बढ़िया -२ पकवान जैसे मैने इस साधु को कराये थे। उससे भी अधिक और स्वादिष्ठ भोजन करा रहा है वो कामधेनु के सामने जाता और प्रार्थना करता और भोजन ले आता । राजा को आश्चर्य हुआ कि ये घास फुस खाने वाला इतना स्वादिस्ट भोजन कहां से ला रहा है। भोजन करने के बाद उसने ऋषि से पूछा कि तुम ये भोजन कैसे करा पा रहे हो। ऋषि बोला - राजन मैं अपने पुण्यो की कमाई देकर  स्वर्ग से कामधेनु गाय लाया हूँ। उनके सामने प्रार्थना करने से वह मुझे ये भोजन व्यवस्था दे रही है आप की सारी सेना तो क्या सारी पृथ्वी को भी भोजन कराया जा सकता है। तो राजा ने अपने सैनिकों से कहा इस गाय को  छिन लो और ले चलो । ये कंगाल क्या करेगा अपने काम आयेगी। यह सुन ऋषि ने कामधेनु गाय  से हाथ जोड़ कर कहा कि हे माता , आप वापस स्वर्ग चली जाईये मेरे काबू से बात बाहर हो गयी है,तब कामधेनु टेन्ट को चीरती हुई आकाश में उड़ चली राजा ने उसे रोकने के लिए तीर चलाया जो जाकर सीधे गाय के खुर में लगा और खुर में से जो रक्त जहां जहां  गिरा वहां ये बीमारी [तम्बाखू] पैदा हो गयी। 
फारसी में कहते है [ तमा,मतलब =गाय ,
खु ,मतलब =खून] 
कसम है १०० बार आपको , अगर आप हिन्दू है और गाय को माँ मानते है तो इसे ना खाये ।
हमें अभी तक ये ज्ञान नही था अब हो गया है। तो अब इस जहर को ना खाए और न हीं खिलाये।तम्बाखू की एक ऐसी सच्चाई  जिसे जानकार आप कभी भी सेवन  नहीं करेंगे और ना किसी को करने देंगे।

हरिजन को सोहावै नहीं, हुक्का हाथ के माहि । 
कहें कबीर रामजन, हुक्का पीवें नाहिं ॥

भांग तमाखू छूतरा, जन कबीर से खाहिं ।
जोग मन जप तप किये, सबे रसातल जाहि ॥

       अर्थ- भांग,तम्बाकू,धतूरा खाने वाले सभी नरक में जाएंगे । चाहे वह कितनी ही भक्ति करता हो । सात प्रकार के नर्क है। अतल,वितल,सुतल,तलातल,महातल,पाताल,रसातल ।।

जो तम्बाकू पीते हैं वो पिछले जन्म के सूअर है।

👇👇👇👇👇👇👇👇
गरीब, हुक्का हरदम पिवते, लाल मिलावैं धूर। 
इसमें संशय है नहीं, जन्म पिछले सूर।।1।।


गरीब, सो नारी जारी करै, सुरा पान सौ बार। 
एक चिलम हुक्का भरै, डुबै काली धार।।2।।

गरीब, सूर गऊ कुं खात है, भक्ति बिहुनें राड। 
भांग तम्बाखू खा गए, सो चाबत हैं हाड।।3।।

गरीब, भांग तम्बाखू पीव हीं, सुरा पान सैं हेत। 
गौस्त मट्टी खाय कर, जंगली बनें प्रेत।।4।।
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Sunday, 25 November 2018

!!आओ जाने हनुमान जी ने पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब जब त्रेता युग में मुनीन्द्र रूप में आये थे तो कब उनसे नाम दीक्षा ली और राम की भक्क्ति छोड़ कर कबीर भक्क्ति की

!!आओ जाने हनुमान जी ने  पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब जब त्रेता युग में मुनीन्द्र रूप में आये थे तो कब उनसे नाम दीक्षा ली और राम की भक्क्ति छोड़ कर कबीर भक्क्ति की •••••••••••••••••••मेरे गुरु जी ने सत्संग में बताया है कि हनुमान को प्रथम बार मुनींद्र जी जब मिले जब हनुमान माता सीता  जी से लंका में मिल कर आ रहे थे तो रास्ते में सीता माता का दिया हुआ कंगन किनारे पर रखकर हनुमान जी एक नदी में नहाने लगे तो एक बंदर कंगन उठा कर भाग लेता है और हनुमान उसे पकड़ने लगता है तो बंदर उस कंगन को एक मटके में डाल देता है अब हनुमान देखते है कि उस मटके में तो सेम वैसे ही बहुत सारे कंगन पड़े हैअब  हनुमान जी देखता हे की वही पास में एक झोपडी में मुनीन्द्र ऋषि बैठा है हनुमान जी मुनीन्द्र ऋषि  से पूछता है महाराज   में सीता माता का कंगन लेकर राम जी के पास जा रहा था लेकिन एक बंदर ने वो कंगन इस मटके में डाल दिया  और इस मटके में ऐसे ही बहुत सारे कंगन  है में सीता जी वाले कंगन को पहचान नही पा रहा हु मुनीन्द्र जी बोले हे हनुमान ये सारे कंगन सीता के ही है आप इनमे से कोई भी कंगन उठा लो हर त्रेता युग में ऐसे ही तुम सीता का कंगन लाते हो और वो बंदर उसे इस मटके में डाल देता है और इस मटके में जो वस्तु पड़ती है ये वैसी ही एक और बना देता है हे हनुमानजी ऐसे ऐसे पता नही कितने राम और कितने  हनुमान हो लिए कब तक ऐसे ही जन्म मरण के चक्र में दुखी होते रहोगे   हम से दीक्षा लेकर सत भक्क्ति क्यों नही करते अब हनुमान जी बोले ऋषि जी अभी टाइम नही है आपसे फिर कभी फुर्सत में ज्ञान चर्चा करूँगा फिर हनुमान जी मुनीन्द्र जी से तब मिले जब मुनीन्द्र जीके आशिर्वाद से समुन्दर में पत्थर नही डूबे और राम चंद्र जी रामसेतु पुल बना सके इसके बाद जब राम जी रावण को मारकर जब अयोध्या चले जाते हे तो हनुमान सीता माता की दी हुयी माला के सारे मोतियों को एक एक करके ये देखने के लिए तोड़ देते है कि इनमें  राम तो किसी मोती में नही फिर ये मेरे किस काम की अब सीता माता जब देखती हे की इसने इतनी अच्छी माला तोड़ दी तो वो कहती है हनुमान तू रहा बंदर का बंदर ही तुमने इतनी अच्छी माला तोड़  दी तुम तो जंगल में ही रहने लायक हो हनुमान सीता माता की इस बात से दुखी होकर अयोध्या छोड़कर वन में चले जाते है और उन्हें वहाँ मुनीन्द्र जी फिर मिलते है और हनुमान और मुनीन्द्र जी के बहुत सवाल जबाब होते है और मुनीन्द्र जी हनुमान को काफी ज्ञान समझाते है आखिर में हनुमान कहता है है मुनीन्द्र जी आप मुझे सतलोक  दिखा कर लाओ तो मुझे तुम्हारे इस ज्ञान पर यकीन हो तब मुनीन्द्र रूप में परमात्मा हनुमान जी को सतलोक दिखाते है और हनुमान परमात्मा मुनिन्द्र के पैर पकड़ लेता है और दीक्षा लेकर तीन लोक के विष्णु अवतार राम की भक्क्ति छोड़करअसंख्यो ब्रह्माण्ड के मालिक पूर्ण ब्रह्म की भक्क्ति करता है हनुमान और मुनींद्र जी में क्या ज्ञान चर्चा हुयी और कैसे हनुमान राम की भक्क्ति छोड़कर मुनीन्द्र द्वारा दी  सत भक्क्ति करने को राजी होता है आप कबीर सागर में पढ़ सकते हो सत साहेब दोस्तों हनुमान एक भक्त था और भक्क्ति भगवन की होती है भक्त की नही इसलिये संत रामपाल जी महाराज से नाम लेकर पूर्ण ब्रह्म कबीर भगवान की भक्क्ति करो   जय हो बंदी छोड़ की #satlokhans

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Friday, 23 November 2018

‘‘नानक जी का संक्षिप्त परिचय






#गुरुनानक_जयंती
    ‘‘नानक जी का संक्षिप्त परिचय’’
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आदरणीय श्री नानक साहेब जी प्रभु कबीर(धाणक) जुलाहा के साक्षी - श्री नानक देव का जन्म विक्रमी संवत् 1526 (सन् 1469) कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को हुआ।

  संत रामपाल जी महाराज

कबीर साहिब ने गुरु नानक देव जी को सतनाम दिया तथा सत लोक (सचखंड) दिखाया।
साहेब कबीर द्वारा श्री नानक जी को तत्वज्ञान समझाना।

    आदरणीय श्री नानक साहेब जी प्रभु कबीर(धाणक) जुलाहा के साक्षी - श्री नानक देव का जन्म विक्रमी संवत् 1526 (सन् 1469) कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को हिन्दु परिवार में श्री कालु राम मेहत्ता (खत्री) के घर माता श्रीमति तृप्ता देवी की पवित्र कोख (गर्भ) से पश्चिमी पाकिस्त्तान के जिला लाहौर के तलवंडी नामक गाँव में हुआ। इन्होंने फारसी, पंजाबी, संस्कृत भाषा पढ़ी हुई थी। श्रीमद् भगवत गीता जी को श्री बृजलाल पांडे से पढ़ा करते थे। श्री नानक देव जी के श्री चन्द तथा लखमी चन्द दो लड़के थे।

    श्री नानक जी अपनी बहन नानकी की सुसराल शहर सुल्तान पुर में अपने बहनोई श्री जयराम जी की कृपा से सुल्तान पुर के नवाब के यहाँ मोदी खाने की नौकरी किया करते थे। प्रभु में असीम प्रेम था क्योंकि यह पुण्यात्मा युगों-युगों से पवित्र भक्ति ब्रह्म भगवान(काल) की करते हुए आ रहे थे। सत्ययुग में यही नानक जी राजा अम्ब्रीष थे तथा ब्रह्म भक्ति विष्णु जी को इष्ट मानकर किया करते थे। दुर्वासा जैसे महान तपस्वी ऋषि भी इनके दरबार में हार मान कर क्षमा याचना करके गए थे।

    त्रोता युग में श्री नानक जी की आत्मा राजा जनक विदेही बने। जो सीता जी के पिता कहलाए। उस समय सुखदेव ऋषि जो महर्षि वेदव्यास के पुत्र थे जो अपनी सिद्धि से आकाश में उड़ जाते थे। परन्तु गुरु से उपदेश नहीं ले रखा था। जब सुखदेव विष्णुलोक के स्वर्ग में गए तो गुरु न होने के कारण वापिस आना पड़ा। विष्णु जी के आदेश से राजा जनक को गुरु बनाया तब स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ। फिर कलियुग में यही राजा जनक की आत्मा एक हिन्दु परिवार में श्री कालुराम महत्ता (खत्री) के घर उत्पन्न हुए तथा श्री नानक नाम रखा गया।
    नानक जी तथा परमेश्वर कबीर जी की ज्ञान चर्चा
    Jagat Guru Rampal Ji

    संत रामपाल जी महाराज

    बाबा नानक देव जी प्रातःकाल प्रतिदिन सुल्तानपुर के पास बह रही बेई दरिया में स्नान करने जाया करते थे तथा घण्टों प्रभु चिन्तन में बैठे रहते थे।

    एक दिन एक जिन्दा फकीर बेई दरिया पर मिले तथा नानक जी से कहा कि आप बहुत अच्छे प्रभु भक्त नजर आते हो। कृप्या मुझे भी भक्ति मार्ग बताने की कृपा करें। मैं बहुत भटक लिया हूँ। मेरा संशय समाप्त नहीं हो पाया है।

    श्री नानक जी ने पूछा कि आप कहाँ से आए हो? आपका क्या नाम है? क्या आपने कोई गुरु धारण किया है?

    तब जिन्दा फकीर का रूप धारण किए कबीर जी ने कहा मेरा नाम कबीर है, बनारस (काशी) से आया हूँ। जुलाहे का काम करता हूँं। मैंने पंडित रामानन्द स्वामी जी से नाम उपदेश ले रखा है।

    श्री नानक जी ने बन्दी छोड़ कबीर जी को एक जिज्ञासु जानकर भक्ति मार्ग बताना प्रारम्भ किया:-

    श्री नानक जी ने कहा हे जिन्दा! गीता में लिखा है कि एक ‘ओ3म’ मंत्र का जाप करो। सतगुण श्री विष्णु जी (जो श्री कृष्ण रूप में अवतरित हुए थे) ही पूर्ण परमात्मा है। स्वर्ग प्राप्ति का एक मात्र साधारण-मार्ग है। गुरु के बिना मोक्ष नहीं, निराकार ब्रह्म की एक ‘ओम् ’मंत्र की साधना से स्वर्ग प्राप्ति होती है।

    जिन्दा रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा गुरु किसे बनाऊँ? कोई पूरा गुरु मिल ही नहीं रहा जो संशय समाप्त करके मन को भक्ति में लगा सके।

    स्वामी रामानन्द जी मेरे गुरु हैं परन्तु उन से मेरा संशय निवारण नहीं हो पाया है(यहाँ पर कबीर परमेश्वर अपने आप को छुपा कर लीला करते हुए कह रहे हैं तथा साथ में यह उद्देश्य है कि इस प्रकार श्री नानक जी को समझाया जा सकता है।)।

    श्री नानक जी ने कहा मुझे गुरु बनाओ, आप का कल्याण निश्चित है। जिन्दा महात्मा के रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा कि मैं आप को गुरु धारण करता हूँ, परन्तु मेरे कुछ प्रश्न हैं, उनका आप से समाधान चाहूँगा। श्री नानक जी बोले - पूछो। जिन्दा महात्मा के रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा हे गुरु नानक जी! आपने बताया कि तीन लोक के प्रभु (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) है। त्रिगुण माया सृष्टि, स्थिति तथा संहार करती है। श्री कृष्ण जी ही श्री विष्णु रूप में स्वयं आए थे, जो सर्वेश्वर, अविनाशी, सर्व लोकों के धारण व पोषण कर्ता हैं। यह सर्व के पूज्य हैं तथा सृष्टि रचनहार भी यही हैं। इनसे ऊपर कोई प्रभु नहीं है। इनके माता-पिता नहीं है, ये तो अजन्मा हैं। श्री कृष्ण ने ही गीता ज्ञान दिया है(यह ज्ञान श्री नानक जी ने श्री बृजलाल पाण्डे से सुना था, जो उन्हें गीता जी पढ़ाया करते थे)। परन्तु गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! मैं तथा तू पहले भी थे तथा यह सर्व सैनिक भी थे, हम सब आगे भी उत्पन्न होंगे। तेरे तथा मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता मैं जानता हूँ। इससे तो सिद्ध है कि गीता ज्ञान दाता भी नाशवान है, अविनाशी नहीं है। गीता अध्याय 7 श्लोक 15 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि जो त्रिगुण माया (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी) के द्वारा मिलने वाले क्षणिक लाभ के कारण इन्हीं की पूजा करके अपना कल्याण मानते हैं, इनसे ऊपर किसी शक्ति को नहीं मानते अर्थात् जिनकी बुद्धि इन्हीं तीन प्रभुओं(त्रिगुणमयी माया) तक सीमित है वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले, मूर्ख मुझे भी नहीं पूजते। इससे तो सिद्ध हुआ कि श्री विष्णु (सतगुण) आदि पूजा के योग्य नहीं है तथा अपनी साधना के विषय में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में कहा है कि मेरी (गति) पूजा भी (अनुत्तमाम्) अति घटिया है। इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4, अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम सतलोक चला जाएगा। जहाँ जाने के पश्चात् साधक का जन्म-मृत्यु का चक्र सदा के लिए छूट जाएगा। वह साधक फिर लौट कर संसार में नहीं आता अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। उस परमात्मा के विषय में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि मैं नहीं जानता। उस के विषय में पूर्ण (तत्व) ज्ञान तत्वदर्शी संतों से पूछो। जैसे वे कहें वैसे साधना करो। प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में। श्री नानक जी से परमेश्वर कबीर साहेब जी ने कहा कि क्या वह तत्वदर्शी संत आपको मिला है जो पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि बताएगा ? श्री नानक जी ने कहा नहीं मिला। परमेश्वर कबीर जी ने कहा जो भक्ति आप कर रहे हो यह तो पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है। उस पूर्ण परमात्मा के विषय में पूर्ण ज्ञान रखने वाला मैं ही वह तत्वदर्शी संत हूँ। बनारस (काशी) में धाणक (जुलाहे) का कार्य करता हूँ। गीता ज्ञान दाता प्रभु स्वयं को नाशवान कह रहा है, जब स्वर्ग तथा महास्वर्ग (ब्रह्मलोक) भी नहीं रहेगा तो साधक का क्या होगा ? जैसे आप ने बताया कि श्रीमद् भगवत गीता में लिखा है कि ओ3म मंत्र के जाप से स्वर्ग प्राप्ति हो जाती है। वहाँ स्वर्ग में साधक जन कितने दिन रह सकते हैं? श्री नानक जी ने उत्तर दिया जितना भजन तथा दान के आधार पर उनका स्वर्ग का समय निर्धारित होगा उतने दिन स्वर्ग में आनन्द से रह सकते हैं।

    जिन्दा फकीर ने प्रश्न किया कि तत् पश्चात् कहाँ जाएँगे?
    उत्तर (नानक जी का) - फिर इस मृत लोक में आना होता है तथा कर्माधार पर अन्य योनियाँ भी भोगनी पड़ती हैं।

    प्रश्न (जिन्दा रूप में कबीर साहेब का)- क्या जन्म मरण मिट सकता है? उत्तर (श्री नानक जी का) - नहीं, गीता में कहा है अर्जुन तेरे मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं और आगे भी होंगे अर्थात् जन्म-मरण बना रहेगा(गीता अध्याय 2 श्लोक 12 तथा अध्याय 4 श्लोक 5)। शुभ कर्म ज्यादा करने से स्वर्ग का समय अधिक हो जाता है।

    प्रश्न {जिन्दा फकीर (कबीर जी) का} - गीता अध्याय न. 8 के श्लोक न. 16 में लिखा है कि ब्रह्मलोक से लेकर सर्वलोक नाशवान हैं। उस समय कहाँ रहोगे? जब न पृथ्वी रहेगी, न श्री विष्णु रहेगा, न विष्णुलोक, न स्वर्ग लोक तथा पूरे ब्रह्मण्ड का विनाश होगा। इसलिए गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि किसी तत्वदर्शी संत की खोज कर, फिर जैसे उस पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति की विधि वह संत बताए उसके अनुसार साधना कर। उसके पश्चात् उस परम पद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए, जहाँ पर जाने के पश्चात् साधक का फिर जन्म-मृत्यु कभी नहीं होता अर्थात् फिर लौट कर संसार में नहीं आते। जिस परमेश्वर से सर्व ब्रह्मण्डों की उत्पत्ति हुई है। मैं (गीता ज्ञान दाता) भी उसी पूर्ण परमात्मा की शरण में हूँ (गीता अध्याय 4 श्लोक 34, अध्याय 15 श्लोक 4) इसलिए कहा है कि अर्जुन सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सतलोक स्थान अर्थात् सच्चखण्ड में चला जाएगा(गीता अध्याय 18 श्लोक 62)। उस पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का ओम-तत्-सत् केवल यही मंत्र है(गीता अध्याय 17 श्लोक 23)।

    उत्तर नानक जी का - इसके बारे में मुझे ज्ञान नहीं।
    जिन्दा फकीर (कबीर साहेब) ने श्री नानक जी को बताया कि यह सर्व काल की कला है। गीता अध्याय न. 11 के श्लोक न. 32 में स्वयं गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि मैं काल हूँ और सभी को खाने के लिए आया हूँ। वही निरंकार कहलाता है। उसी काल का ओंकार (ओम्) मंत्र है।

    गीता अध्याय न. 11 के श्लोक न. 21 में अर्जुन ने कहा है कि आप तो ऋषियों को भी खा रहे हो, देवताओं को भी खा रहे हो जो आपही का स्मरण स्तुति वेद विधि अनुसार कर रहे हैं। इस प्रकार काल वश सर्व साधक साधना करके उसी के मुख में प्रवेश करते रहते हैं। आपने इसी काल (ब्रह्म) की साधना करते करते असंख्यों युग हो गए। साठ हजार जन्म तो आपके महर्षि तथा महान भक्त रूप में हो चुके हैं। फिर भी काल के लोक में जन्म-मृत्यु के चक्र में ही रहे हो।

    सर्व सृष्टि रचना सुनाई तथा श्री ब्रह्मा (रजगुण), श्री विष्णु (सतगुण) तथा श्री शिव (तमगुण) की स्थिति बताई। श्री देवी महापुराण तीसरा स्कंद (पृष्ठ 123, गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित, मोटा टाईप) में स्वयं विष्णु जी ने कहा है कि मैं (विष्णु) तथा ब्रह्मा व शिव तो नाशवान हैं, अविनाशी नहीं हैं। हमारा तो आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होता है। आप (दुर्गा/अष्टांगी) हमारी माता हो। दुर्गा ने बताया कि ब्रह्म (ज्योति निरंजन) आपका पिता है। श्री शंकर जी ने स्वीकार किया कि मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर भी आपका पुत्र हूँ तथा ब्रह्मा भी आपका बेटा है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे नानक जी! आप इन्हें अविनाशी, अजन्मा, इनके कोई माता-पिता नहीं हैं आदि उपमा दे रहे हो। यह दोष आप का नहीं है। यह दोष दोनों धर्मों(हिन्दू तथा मुसलमान) के ज्ञानहीन गुरुओं का है जो अपने-अपने धर्म के सद्ग्रन्थों को ठीक से न समझ कर अपनी-अपनी अटकल से दंत कथा (लोकवेद) सुना कर वास्तविक भक्ति मार्ग के विपरीत शास्त्रा विधि रहित मनमाना आचरण (पूजा) का ज्ञान दे रहे हैं। दोनों ही पवित्र धर्मों के पवित्र शास्त्रा एक पूर्ण प्रभु का(मेरा) ही ज्ञान करा रहे हैं। र्कुआन शरीफ में सूरत फुर्कानि 25 आयत 52 से 59 में भी मुझ कबीर का वर्णन है।

    श्री नानक जी ने कहा कि यह तो आज तक किसी ने नहीं बताया। इसलिए मन स्वीकार नहीं कर रहा है। तब जिन्दा फकीर जी (कबीर साहेब जी) श्री नानक जी की अरूचि देखकर चले गए। उपस्थित व्यक्तियों ने श्री नानक जी से पूछा यह भक्त कौन था जो आप को गुरुदेव कह रहा था? नानक जी ने कहा यह काशी में रहता है, नीच जाति का जुलाहा(धाणक) कबीर था। बेतुकी बातें कर रहा था। कह रहा था कि कृष्ण जी तो काल के चक्र में है तथा मुझे भी कह रहा था कि आपकी साधना ठीक नहीं है। तब मैंने बताना शुरू किया तब हार मान कर चला गया। {इस वार्ता से सिक्खों ने श्री नानक जी को परमेश्वर कबीर साहेब जी का गुरु मान लिया।}

    श्री नानक जी प्रथम वार्ता पूज्य कबीर परमेश्वर के साथ करने के पश्चात् यह तो जान गए थे कि मेरा ज्ञान पूर्ण नहीं है तथा गीता जी का ज्ञान भी उससे कुछ भिन्न ही है जो आज तक हमें बताया गया था। इसलिए हृदय से प्रतिदिन प्रार्थना करते थे कि वही संत एक बार फिर आए। मैं उससे कोई वाद-विवाद नहीं करूंगा, कुछ प्रश्नों का उत्तर अवश्य चाहूँगा। परमेश्वर कबीर जी तो अन्तर्यामी हैं तथा आत्मा के आधार व आत्मा के वास्तविक पिता हैं, अपनी प्यारी आत्माओं को ढूंढते रहते हैं। कुछ समय के ऊपरान्त जिन्दा फकीर रूप में कबीर जी ने उसी बेई नदी के किनारे पहुँच कर श्री नानक जी को राम-राम कहा। उस समय श्री नानक जी कपड़े उतार कर स्नान के लिए तैयार थे। जिन्दा महात्मा केवल श्री नानक जी को दिखाई दे रहे थे अन्य को नहीं। श्री नानक जी से वार्ता करने लगे। कबीर जी ने कहा कि आप मेरी बात पर विश्वास करो। एक पूर्ण परमात्मा है तथा उसका सतलोक स्थान है जहाँ की भक्ति करने से जीव सदा के लिए जन्म-मरण से छूट सकता है। उस स्थान तथा उस परमात्मा की प्राप्ति की साधना का केवल मुझे ही पता है अन्य को नहीं तथा गीता अध्याय न. 18 के श्लोक न. 62, अध्याय 15 श्लोक 4 में भी उस परमात्मा तथा स्थान के विषय में वर्णन है।

    पूर्ण परमात्मा गुप्त है उसकी शरण में जाने से उसी की कृपा से तू (शाश्वतम्) अविनाशी अर्थात् सत्य (स्थानम्) लोक को प्राप्त होगा। गीता ज्ञान दाता प्रभु भी कह रहा है कि मैं भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर नारायण की शरण में हूँ। श्री नानक जी ने कहा कि मैं आपकी एक परीक्षा लेना चाहता हूँ। मैं इस दरिया में छुपूँगा और आप मुझे ढूंढ़ना। यदि आप मुझे ढूंढ दोगे तो मैं आपकी बात पर विश्वास कर लूँगा। यह कह कर श्री नानक जी ने बेई नदी में डुबकी लगाई तथा मछली का रूप धारण कर लिया। जिन्दा फकीर (कबीर पूर्ण परमेश्वर) ने उस मछली को पकड़ कर जिधर से पानी आ रहा था उस ओर लगभग तीन किलो मीटर दूर ले गए तथा श्री नानक जी बना दिया।
    (प्रमाण श्री गुरु ग्रन्थ साहेब सीरी रागु महला पहला, घर 4 पृष्ठ 25) -

    तू दरीया दाना बीना, मैं मछली कैसे अन्त लहा।
    जह-जह देखा तह-तह तू है, तुझसे निकस फूट मरा।
    न जाना मेऊ न जाना जाली। जा दुःख लागै ता तुझै समाली।1।रहाऊ।।

    नानक जी ने कहा कि मैं मछली बन गया था, आपने कैसे ढूंढ लिया? हे परमेश्वर! आप तो दरीया के अंदर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म वस्तु को जानने वाले हो। मुझे तो जाल डालने वाले(जाली) ने भी नहीं जाना तथा गोताखोर(मेऊ) ने भी नहीं जाना अर्थात् नहीं जान सका। जब से आप के सतलोक से निकल कर अर्थात् आप से बिछुड़ कर आए हैं तब से कष्ट पर कष्ट उठा रहा हूँ। जब दुःख आता है तो आपको ही याद करता हूँ, मेरे कष्टों का निवारण आप ही करते हो? (उपरोक्त वार्ता बाद में काशी में प्रभु के दर्शन करके हुई थी)।

    तब नानक जी ने कहा कि अब मैं आपकी सर्व वार्ता सुनने को तैयार हूँ। कबीर परमेश्वर ने वही सृष्टि रचना पुनर् सुनाई तथा कहा कि मैं पूर्ण परमात्मा हूँ मेरा स्थान सच्चखण्ड (सत्यलोक) है। आप मेरी आत्मा हो। काल (ब्रह्म) आप सर्व आत्माओं को भ्रमित ज्ञान से विचलित करता है तथा नाना प्रकार से प्राणियों के शरीर में बहुत परेशान कर रहा है। मैं आपको सच्चानाम (सत्यनाम/वास्तविक मंत्र जाप) दूँगा जो किसी शास्त्रा में नहीं है। जिसे काल (ब्रह्म) ने गुप्त कर रखा है।

    श्री नानक जी ने कहा कि मैं अपनी आँखों अकाल पुरूष तथा सच्चखण्ड को देखूं तब आपकी बात को सत्य मानूं। तब कबीर साहेब जी श्री नानक जी की पुण्यात्मा को सत्यलोक ले गए। सच्च खण्ड में श्री नानक जी ने देखा कि एक असीम तेजोमय मानव सदृश शरीर युक्त प्रभु तख्त पर बैठे थे। अपने ही दूसरे स्वरूप पर कबीर साहेब जिन्दा महात्मा के रूप में चंवर करने लगे। तब श्री नानक जी ने सोचा कि अकाल मूर्त तो यह रब है जो गद्दी पर बैठा है। कबीर तो यहाँ का सेवक होगा। उसी समय जिन्दा रूप में परमेश्वर कबीर साहेब उस गद्दी पर विराजमान हो गए तथा जो तेजोमय शरीर युक्त प्रभु का दूसरा रूप था वह खड़ा होकर तख्त पर बैठे जिन्दा वाले रूप पर चंवर करने लगा। फिर वह तेजोमय रूप नीचे से गये जिन्दा (कबीर) रूप में समा गया तथा गद्दी पर अकेले कबीर परमेश्वर जिन्दा रूप में बैठे थे और चंवर अपने आप ढुरने लगा।

    तब नानक जी ने कहा कि वाहे गुरु, सत्यनाम से प्राप्ति तेरी। इस प्रक्रिया में तीन दिन लग गए। नानक जी की आत्मा को साहेब कबीर जी ने वापस शरीर में प्रवेश कर दिया। तीसरे दिन श्री नानक जी होश में आऐ।

    उधर श्री जयराम जी ने (जो श्री नानक जी का बहनोई था) श्री नानक जी को दरिया में डूबा जान कर दूर तक गोताखोरों से तथा जाल डलवा कर खोज करवाई। परन्तु कोशिश निष्फल रही और मान लिया कि श्री नानक जी दरिया के अथाह वेग में बह कर मिट्टी के नीचे दब गए। तीसरे दिन जब नानक जी उसी नदी के किनारे सुबह-सुबह दिखाई दिए तो बहुत व्यक्ति एकत्रित हो गए, बहन नानकी तथा बहनोई श्री जयराम भी दौड़े गए, खुशी का ठिकाना नहीं रहा तथा घर ले आए।

    श्री नानक जी अपनी नौकरी पर चले गए। मोदी खाने का दरवाजा खोल दिया तथा कहा जिसको जितना चाहिए, ले जाओ। पूरा खजाना लुटा कर शमशान घाट पर बैठ गए। जब नवाब को पता चला कि श्री नानक खजाना समाप्त करके शमशान घाट पर बैठा है। तब नवाब ने श्री जयराम की उपस्थिति में खजाने का हिसाब करवाया तो सात सौ साठ रूपये अधिक मिले। नवाब ने क्षमा याचना की तथा कहा कि नानक जी आप सात सौ साठ रूपये जो आपके सरकार की ओर अधिक हैं ले लो तथा फिर नौकरी पर आ जाओ। तब श्री नानक जी ने कहा कि अब सच्ची सरकार की नौकरी करूँगा। उस पूर्ण परमात्मा के आदेशानुसार अपना जीवन सफल करूँगा। वह पूर्ण परमात्मा है जो मुझे बेई नदी पर मिला था।

    नवाब ने पूछा वह पूर्ण परमात्मा कहाँ रहता है तथा यह आदेश आपको कब हुआ? श्री नानक जी ने कहा वह सच्चखण्ड में रहता हेै। बेई नदी के किनारे से मुझे स्वयं आकर वही पूर्ण परमात्मा सच्चखण्ड (सत्यलोक) लेकर गया था। वह इस पृथ्वी पर भी आकार में आया हुआ है। उसकी खोज करके अपना आत्म कल्याण करवाऊँगा। उस दिन के बाद श्री नानक जी घर त्याग कर पूर्ण परमात्मा की खोज पृथ्वी पर करने के लिए चल पड़े। श्री नानक जी सतनाम तथा वाहिगुरु की रटना लगाते हुए बनारस पहुँचे। इसीलिए अब पवित्र सिक्ख समाज के श्रद्धालु केवल सत्यनाम श्री वाहिगुरु कहते रहते हैं। सत्यनाम क्या है तथा वाहिगुरु कौन है यह मालूम नहीं है। जबकि सत्यनाम(सच्चानाम) गुरु ग्रन्थ साहेब में लिखा है, जो अन्य मंत्र है।

    जैसा की कबीर साहेब ने बताया था कि मैं बनारस (काशी) में रहता हूँ। धाणक (जुलाहे) का कार्य करता हूँ। मेरे गुरु जी काशी में सर्व प्रसिद्ध पंडित रामानन्द जी हैं। इस बात को आधार रखकर श्री नानक जी ने संसार से उदास होकर पहली उदासी यात्रा बनारस (काशी) के लिए प्रारम्भ की (प्रमाण के लिए देखें ‘‘जीवन दस गुरु साहिब‘‘ (लेखक:- सोढ़ी तेजा सिंह जी, प्रकाशक=चतर सिंघ, जीवन सिंघ) पृष्ठ न. 50 पर।)।

    परमेश्वर कबीर साहेब जी स्वामी रामानन्द जी के आश्रम में प्रतिदिन जाया करते थे। जिस दिन श्री नानक जी ने काशी पहुँचना था उससे पहले दिन कबीर साहेब ने अपने पूज्य गुरुदेव रामानन्द जी से कहा कि स्वामी जी कल मैं आश्रम में नहीं आ पाऊँगा। क्योंकि कपड़ा बुनने का कार्य अधिक है। कल सारा दिन लगा कर कार्य निपटा कर फिर आपके दर्शन करने आऊँगा।

    काशी(बनारस) में जाकर श्री नानक जी ने पूछा कोई रामानन्द जी महाराज है। सब ने कहा वे आज के दिन सर्व ज्ञान सम्पन्न ऋषि हैं। उनका आश्रम पंचगंगा घाट के पास है। श्री नानक जी ने श्री रामानन्द जी से वार्ता की तथा सच्चखण्ड का वर्णन शुरू किया। तब श्री रामानन्द स्वामी ने कहा यह पहले मुझे किसी शास्त्रा में नहीं मिला परन्तु अब मैं आँखों देख चुका हूँ, क्योंकि वही परमेश्वर स्वयं कबीर नाम से आया हुआ है तथा मर्यादा बनाए रखने के लिए मुझे गुरु कहता है परन्तु मेरे लिए प्राण प्रिय प्रभु है। पूर्ण विवरण चाहिए तो मेरे व्यवहारिक शिष्य परन्तु वास्तविक गुरु कबीर से पूछो, वही आपकी शंका का निवारण कर सकता है।

    श्री नानक जी ने पूछा कि कहाँ हैं (परमेश्वर स्वरूप) कबीर साहेब जी ? मुझे शीघ्र मिलवा दो। तब श्री रामानन्द जी ने एक सेवक को श्री नानक जी के साथ कबीर साहेब जी की झोपड़ी पर भेजा। उस सेवक से भी सच्चखण्ड के विषय में वार्ता करते हुए श्री नानक जी चले तो उस कबीर साहेब के सेवक ने भी सच्चखण्ड व सृष्टि रचना जो परमेश्वर कबीर साहेब जी से सुन रखी थी सुनाई। तब श्री नानक जी ने आश्चर्य हुआ कि मेरे से तो कबीर साहेब के चाकर (सेवक) भी अधिक ज्ञान रखते हैं। इसीलिए गुरुग्रन्थ साहेब पृष्ठ 721 पर अपनी अमृतवाणी महला 1 में श्री नानक जी ने कहा है कि -

    “हक्का कबीर करीम तू, बेएब परवरदीगार।
    नानक बुगोयद जनु तुरा, तेरे चाकरां पाखाक”

    जिसका भावार्थ है कि हे कबीर परमेश्वर जी मैं नानक कह रहा हूँ कि मेरा उद्धार हो गया, मैं तो आपके सेवकों के चरणों की धूर तुल्य हूँ।

    जब नानक जी ने देखा यह धाणक (जुलाहा) वही परमेश्वर है जिसके दर्शन सत्यलोक (सच्चखण्ड) में किए तथा बेई नदी पर हुए थे। वहाँ यह जिन्दा महात्मा के वेश में थे यहाँ धाणक (जुलाहे) के वेश में हैं। यह स्थान अनुसार अपना वेश बदल लेते हैं परन्तु स्वरूप (चेहरा) तो वही है। वही मोहिनी सूरत जो सच्चखण्ड में भी विराजमान था। वही करतार आज धाणक रूप में बैठा है। श्री नानक जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आँखों में आँसू भर गए।

    तब श्री नानक जी अपने सच्चे स्वामी अकाल मूर्ति को पाकर चरणों में गिरकर सत्यनाम (सच्चानाम) प्राप्त किया। तब शान्ति पाई तथा अपने प्रभु की महिमा देश विदेश में गाई।

    पहले श्री नानकदेव जी एक ओंकार(ओम) मन्त्रा का जाप करते थे तथा उसी को सत मान कर कहा करते थे एक ओंकार। उन्हें बेई नदी पर कबीर साहेब ने दर्शन दे कर सतलोक(सच्चखण्ड) दिखाया तथा अपने सतपुरुष रूप को दिखाया। जब सतनाम का जाप दिया तब नानक जी की काल लोक से मुक्ति हुई। नानक जी ने कहा कि:
    इसी का प्रमाण गुरु ग्रन्थ साहिब के राग ‘‘सिरी‘‘ महला 1 पृष्ठ नं. 24 पर शब्द नं. 29

    शब्द - एक सुआन दुई सुआनी नाल, भलके भौंकही सदा बिआल
    कुड़ छुरा मुठा मुरदार, धाणक रूप रहा करतार।।1।।
    मै पति की पंदि न करनी की कार। उह बिगड़ै रूप रहा बिकराल।।
    तेरा एक नाम तारे संसार, मैं ऐहो आस एहो आधार।
    मुख निंदा आखा दिन रात, पर घर जोही नीच मनाति।।
    काम क्रोध तन वसह चंडाल, धाणक रूप रहा करतार।।2।।
    फाही सुरत मलूकी वेस, उह ठगवाड़ा ठगी देस।।
    खरा सिआणां बहुता भार, धाणक रूप रहा करतार।।3।।
    मैं कीता न जाता हरामखोर, उह किआ मुह देसा दुष्ट चोर।
    नानक नीच कह बिचार, धाणक रूप रहा करतार।।4।।

    इसमें स्पष्ट लिखा है कि एक(मन रूपी) कुत्ता तथा इसके साथ दो (आशा-तृष्णा रूपी) कुतिया अनावश्यक भौंकती(उमंग उठती) रहती हैं तथा सदा नई-नई आशाएँ उत्पन्न(ब्याती हैं) होती हैं। इनको मारने का तरीका(जो सत्यनाम तथा तत्व ज्ञान बिना) झुठा(कुड़) साधन(मुठ मुरदार) था। मुझे धाणक के रूप में हक्का कबीर (सत कबीर) परमात्मा मिला। उन्होनें मुझे वास्तविक उपासना बताई।

    नानक जी ने कहा कि उस परमेश्वर(कबीर साहेब) की साधना बिना न तो पति(साख) रहनी थी और न ही कोई अच्छी करनी(भक्ति की कमाई) बन रही थी। जिससे काल का भयंकर रूप जो अब महसूस हुआ है उससे केवल कबीर साहेब तेरा एक(सत्यनाम) नाम पूर्ण संसार को पार(काल लोक से निकाल सकता है) कर सकता है। मुझे(नानक जी कहते हैं) भी एही एक तेरे नाम की आश है व यही नाम मेरा आधार है। पहले अनजाने में बहुत निंदा भी की होगी क्योंकि काम क्रोध इस तन में चंडाल रहते हैं।

    मुझे धाणक(जुलाहे का कार्य करने वाले कबीर साहेब) रूपी भगवान ने आकर सतमार्ग बताया तथा काल से छुटवाया। जिसकी सुरति(स्वरूप) बहुत प्यारी है मन को फंसाने वाली अर्थात् मन मोहिनी है तथा सुन्दर वेश-भूषा में(जिन्दा रूप में) मुझे मिले उसको कोई नहीं पहचान सकता। जिसने काल को भी ठग लिया अर्थात् दिखाई देता है धाणक(जुलाहा) फिर बन गया जिन्दा। काल भगवान भी भ्रम में पड़ गया भगवान(पूर्णब्रह्म) नहीं हो सकता। इसी प्रकार परमेश्वर कबीर साहेब अपना वास्तविक अस्तित्व छुपा कर एक सेवक बन कर आते हैं। काल या आम व्यक्ति पहचान नहीं सकता। इसलिए नानक जी ने उसे प्यार में ठगवाड़ा कहा है और साथ में कहा है कि वह धाणक(जुलाहा कबीर) बहुत समझदार है। दिखाई देता है कुछ परन्तु है बहुत महिमा(बहुता भार) वाला जो धाणक जुलाहा रूप मंे स्वयं परमात्मा पूर्ण ब्रह्म(सतपुरुष) आया है। प्रत्येक जीव को आधीनी समझाने के लिए अपनी भूल को स्वीकार करते हुए कि मैंने(नानक जी ने) पूर्णब्रह्म के साथ बहस(वाद-विवाद) की तथा उन्होनें (कबीर साहेब ने) अपने आपको भी (एक लीला करके) सेवक रूप में दर्शन दे कर तथा(नानक जी को) मुझको स्वामी नाम से सम्बोधित किया। इसलिए उनकी महानता तथा अपनी नादानी का पश्चाताप करते हुए श्री नानक जी ने कहा कि मैं(नानक जी) कुछ करने कराने योग्य नहीं था। फिर भी अपनी साधना को उत्तम मान कर भगवान से सम्मुख हुआ(ज्ञान संवाद किया)। मेरे जैसा नीच दुष्ट, हरामखोर कौन हो सकता है जो अपने मालिक पूर्ण परमात्मा धाणक रूप(जुलाहा रूप में आए करतार कबीर साहेब) को नहीं पहचान पाया? श्री नानक जी कहते हैं कि यह सब मैं पूर्ण सोच समझ से कह रहा हूँ कि परमात्मा यही धाणक (जुलाहा कबीर) रूप में है।

    भावार्थ:- श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि यह फासने वाली अर्थात् मनमोहिनी शक्ल सूरत में तथा जिस देश में जाता है वैसा ही वेश बना लेता है, जैसे जिंदा महात्मा रूप में बेई नदी पर मिले, सतलोक में पूर्ण परमात्मा वाले वेश में तथा यहाँ उतर प्रदेश में धाणक(जुलाहे) रूप में स्वयं करतार (पूर्ण प्रभु) विराजमान है। आपसी वार्ता के दौरान हुई नोक-झोंक को याद करके क्षमा याचना करते हुए अधिक भाव से कह रहे हैं कि मैं अपने सत्भाव से कह रहा हूँ कि यही धाणक(जुलाहे) रूप में सत्पुरुष अर्थात् अकाल मूर्त ही है।
    दूसरा प्रमाण:- नीचे प्रमाण है जिसमें कबीर परमेश्वर का नाम स्पष्ट लिखा है। श्री गु.ग्रपृष् ठ नं. 721 राग तिलंग महला पहला में है।
    और अधिक प्रमाण के लिए प्रस्तुत है ‘‘राग तिलंग महला 1‘‘ पंजाबी गुरु ग्रन्थ साहेब पृष्ठ नं. 721

    यक अर्ज गुफतम पेश तो दर गोश कुन करतार।
    हक्का कबीर करीम तू बेएब परवरदिगार।।
    दूनियाँ मुकामे फानी तहकीक दिलदानी।
    मम सर मुई अजराईल गिरफ्त दिल हेच न दानी।।
    जन पिसर पदर बिरादराँ कस नेस्त दस्तं गीर।
    आखिर बयफ्तम कस नदारद चूँ शब्द तकबीर।।
    शबरोज गशतम दरहवा करदेम बदी ख्याल।
    गाहे न नेकी कार करदम मम ई चिनी अहवाल।।
    बदबख्त हम चु बखील गाफिल बेनजर बेबाक।
    नानक बुगोयद जनु तुरा तेरे चाकरा पाखाक।।

    सरलार्थ:-- (कुन करतार) हे शब्द स्वरूपी कर्ता अर्थात् शब्द से सर्व सृष्टि के रचनहार (गोश) निर्गुणी संत रूप में आए (करीम) दयालु (हक्का कबीर) सत कबीर (तू) आप (बेएब परवरदिगार) निर्विकार परमेश्वर हंै। (पेश तोदर) आपके समक्ष अर्थात् आप के द्वार पर (तहकीक) पूरी तरह जान कर (यक अर्ज गुफतम) एक हृदय से विशेष प्रार्थना है कि (दिलदानी) हे महबूब (दुनियां मुकामे) यह संसार रूपी ठिकाना (फानी) नाशवान है (मम सर मूई) जीव के शरीर त्यागने के पश्चात् (अजराईल) अजराईल नामक फरिश्ता यमदूत (गिरफ्त दिल हेच न दानी) बेरहमी के साथ पकड़ कर ले जाता है। उस समय (कस) कोई (दस्तं गीर) साथी (जन) व्यक्ति जैसे (पिसर) बेटा (पदर) पिता (बिरादरां) भाई चारा (नेस्तं) साथ नहीं देता। (आखिर बेफ्तम) अन्त में सर्व उपाय (तकबीर) फर्ज अर्थात् (कस) कोई क्रिया काम नहीं आती (नदारद चूं शब्द) तथा आवाज भी बंद हो जाती है (शबरोज) प्रतिदिन (गशतम) गसत की तरह न रूकने वाली (दर हवा) चलती हुई वायु की तरह (बदी ख्याल) बुरे विचार (करदेम) करते रहते हैं (नेकी कार करदम) शुभ कर्म करने का (मम ई चिनी) मुझे कोई (अहवाल) जरीया अर्थात् साधन (गाहे न) नहीं मिला (बदबख्त) ऐसे बुरे समय में (हम चु) हमारे जैसे (बखील) नादान (गाफील) ला परवाह (बेनजर बेबाक) भक्ति और भगवान का वास्तविक ज्ञान न होने के कारण ज्ञान नेत्र हीन था तथा ऊवा-बाई का ज्ञान कहता था। (नानक बुगोयद) नानक जी कह रहे हैं कि हे कबीर परमेश्वर आप की कृपा से (तेरे चाकरां पाखाक) आपके सेवकों के चरणों की धूर डूबता हुआ (जनु तूरा) बंदा पार हो गया।

    केवल हिन्दी अनुवाद:-- हे शब्द स्वरूपी राम अर्थात् शब्द से सर्व सृष्टि रचनहार दयालु ‘‘सतकबीर‘‘ आप निर्विकार परमात्मा हैं। आप के समक्ष एक हृदय से विनती है कि यह पूरी तरह जान लिया है हे महबूब यह संसार रूपी ठिकाना नाशवान है। हे दाता! इस जीव के मरने पर अजराईल नामक यम दूत बेरहमी से पकड़ कर ले जाता है कोई साथी जन जैसे बेटा पिता भाईचारा साथ नहीं देता। अन्त में सभी उपाय और फर्ज कोई क्रिया काम नहीं आता। प्रतिदिन गश्त की तरह न रूकने वाली चलती हुई वायु की तरह बुरे विचार करते रहते हैं। शुभ कर्म करने का मुझे कोई जरीया या साधन नहीं मिला। ऐसे बुरे समय कलियुग में हमारे जैसे नादान लापरवाह, सत मार्ग का ज्ञान न होने से ज्ञान नेत्र हीन था तथा लोकवेद के आधार से अनाप-सनाप ज्ञान कहता रहता था। नानक जी कहते हैं कि मैं आपके सेवकों के चरणों की धूर डूबता हुआ बन्दा नानक पार हो गया।

    भावार्थ - श्री गुरु नानक साहेब जी कह रहे हैं कि हे हक्का कबीर (सत् कबीर)! आप निर्विकार दयालु परमेश्वर हो। आप से मेरी एक अर्ज है कि मैं तो सत्यज्ञान वाली नजर रहित तथा आपके सत्यज्ञान के सामने तो निर्उत्तर अर्थात् जुबान रहित हो गया हूँ। हे कुल मालिक! मैं तो आपके दासों के चरणों की धूल हूँ, मुझे शरण में रखना।

    इसके पश्चात् जब श्री नानक जी को पूर्ण विश्वास हो गया कि पूर्ण परमात्मा तो गीता ज्ञान दाता प्रभु से अन्य ही है। वही पूजा के योग्य है। पूर्ण परमात्मा की भक्ति तथा ज्ञान के विषय में गीता ज्ञान दाता प्रभु भी अनभिज्ञ है। परमेश्वर स्वयं ही तत्वदर्शी संत रूप से प्रकट होकर तत्वज्ञान को जन-जन को सुनाता है। जिस ज्ञान को वेद भी नहीं जानते वह तत्वज्ञान केवल पूर्ण परमेश्वर (सतपुरुष) ही स्वयं आकर ज्ञान कराता है।



Thursday, 22 November 2018

जानैं ब्राह्मा विष्णु शिवजी की आयू कितनी है

कबीर .इतनी लंम्बी उमर .मरेगा अंत रे
सतगुरू मिले . तो पहुँचेगा सतलोक रे……
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।।  इंद्र व सर्व प्रभुओं की आयु मानव वर्ष अनुसार।।

इंद्र -                 31 करोड़ लगभग
शची
(14 इन्द्रौं
की शिवजीव पत्नी) -       4 अरब लगभग
ब्राह्मा जी -        31 लाख करोड़ लगभग
विष्णु जी   -        2 अरब लाख  लगभग
शिवजी -       15 लाख अरब  लगभग
ब्रह्म-काल-        25 खरब करोड़ लगभग
परब्रह्म    -          2 पदम अरब   लगभग
पूर्णब्रह्म कबिर्देव-        अजर-अमर

एक ब्रह्मा की आयु 100 (सौ) वर्ष है,किस तरह  के 100 वर्ष की है। गौर से नीचे देखिये
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ब्रह्मा का एक दिन = 1008 (एक हजार) चतुर्युग तथा इतनी ही 1008 (एक हज़ार)चतुर्युग की रात्री।

दिन+रात = 2016 (दो हजार सोलह) चतुर्युग।

  चार  युगो ( (चतुर्युग) की आयु
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सतयुग की आयु    = 17,28,000  वर्ष
(17 लाख 28 हजार)
द्वापर युग की आयु = 12,96,000  वर्ष
(12 लाख 96 हज़ार)
त्रेता युग की आयु  =   8,64,000   वर्ष
(8 लाख 64 हज़ार)
कलयुग की आयु   =   4,32,000   वर्ष
(4 लाख 32 हज़ार)  

चार युगौं (चतुर्युग)
की आयु  =                43,20,000  वर्ष
43 लाख 20 हज़ार

{नोट - ब्रह्मा जी के एक दिन में 14 इन्द्रों का शासन काल समाप्त हो जाता है। एक इन्द्र का शासन काल बहतर चतुर्युग का होता है।
इंद्र की बीबी शची 14 ईन्द्रौं की बीबी बनती है, फ़िर ये सभी 14 ईन्द्र मर कर गधे बनते है और शची भी मर कर गधी का जीवन प्राप्त होता है.)

इस प्रकार  इंद्र का  जीवनकाल
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 72 चतुर्युग × 43,20,000 = 31,10,40,000
 मानव बर्ष
(31 करोड़ 10 लाख 40 हजार    मानव वर्ष अनुसार )

शची (14 इंद्रौ की पत्नी) का जीवन काल
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1008 चतुर्युग× 43,20,000 = 4,35,45,60,000  मानव वर्ष

(4 अरब 33 करोड़ 45 लाख 60 हजार मानव वर्ष अनुसार)

इस प्रकार ब्रह्मा जी का एक दिन  और रात 2016 चतुर्युग.

1 महीना = 30 गुणा 2016 = 60480 चतुर्युग।
वर्ष = 12 गुणा 60480 = 725760चतुर्युग ।

ब्रह्मा जी की आयु -
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1 महीना = 30 × 2016 = 60480 चतुर्युग।
वर्ष = 12 × 60480 = 725760चतुर्युग ।
7,25,760 × 100 =7,25,76,000 चतुर्युग × 43,20,000(1चतुर्युग)=31,35,28,32,00,00,000   मानव वर्ष

ब्राह्मा जी की आयु है.
(31 नील 33 खरब 28 अरब 32 लाख   मानव वर्ष अनुसार )

ब्रह्मा जी से सात गुणा विष्णु जी की आयु -
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7,25,76,000 × 7 = 50,80,32,000 चतुर्युग × 43,20,000(1चतुर्युग) = 2,19,46,98,24,00,00,000  मानव वर्ष

 विष्णुजी की आयु है।
(2 पदम 19 नील 46 खरब 98 अरब 24 करोड़  मानव वर्ष अनुसार)

विष्णु से सात गुणा शिव जी की आयु -
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50,80,32,000  × 7 = 3,55,62,24,000 चतुर्युग 15,36,28,87,68,00,00,000 मानव वर्ष .

शिवजी की आयु है
(15 पदम 36 नील 48 खरब 87 अरब 68 करोड़ मानव वर्ष अनुसार )

ऐसे 3,55,62,24,000  चतुर्युग वाले जब  सत्तर हजार (70,000)  शिवजी मरते है   तब ब्राह्मा-विश्नू -शंकर के पिता ज्योति निरंजन (काल ब्रह्म) और इनकी माता दुर्गा -शेरावाली भी मर जाते है.

    ब्राह्मा-विश्नू -शंकर के पिता ज्योति निरंजन और दुर्गा -शेरावाली की आयु-
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 3,55,62,24,000×70000= 24,89,35,68,00,00,000  चतुर्युग × (1चतुर्युग) = 2,24,04,21,12,00,00,00,00,000 मानव वर्ष

( 25 खरब करोड़ लगभग मानव वर्ष अनुसार)

पूर्ण परमात्मा के द्वारा पूर्व निर्धारित किए                   24,89,35,68,00,00,000  चतुर्युग अर्थात 2,24,04,21,12,00,00,00,00,000 मानव वर्ष
 समय में  काल- ब्राह्म और दुर्गा शेरावाली  के 21 ब्रह्मांडो मे से जिस 1 ब्रह्मांड में स्रषटि चल रही होती है उस ब्रह्मांड में महाप्रलय होती है।

यह  (सत्तर हजार शिव की मृत्यु अर्थात् एक सदाशिव/ज्योति निरंजन की मृत्यु होती है) एक युग होता है परब्रह्म का।

 परब्रह्म का 1  दिन एक हजार युग का होता है इतनी ही 1 हज़ार युग की रात्री होती है 30 दिन-रात का 1 महिना तथा 12 महिनों का परब्रह्म का 1 वर्ष हुआ तथा इस प्रकार का 100 वर्ष की परब्रह्म की आयु है। परब्रह्म की भी मृत्यु होती है। ब्रह्म अर्थात् ज्योति निरंजन की मृत्यु परब्रह्म के एक दिन के पश्चात् ही हो जाती है

परब्रह्म की आयु
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इस प्रकार परब्रह्म जी का एक दिन  और रात  1,000 +1,000 = 2,000 युग
1 महीना = 30 × 2,000= 6,000 युग
1 वर्ष = 12 × 6,000= 72,000 युग ।
100  वर्ष = 100 × 72,000 = 72,00,000 युग.
72,00,000  युग × 2,24,04,21,12,00,00,00,00,000 काल के जीवन के मानव वर्ष = 2,01,63,79,00,80,00,00,00,00,00,00,000

(2 पदम अरब लगभग मानव वर्ष अनुसार)

 नोट-
अर्थात परब्रह्म के जीवन काल में 72,00,000 बार काल- ब्राह्म और दुर्गा शेरावाली का जन्म-मरण हो जाता है!!!.

 परब्रह्म के सौ वर्ष पूरे होने के पश्चात परब्रह्म की भी म्रत्यु हो जाती है.ईस तीसरी दिव्य महाप्रलय में  एक धुधुंकार शंख बजता है .और  परब्रह्म सहित  इसके 7 संख ब्रह्मांडो के सभी जीव ,काल-ब्रह्म और दुर्गा सहित  सर्व 21 ब्रह्मण्ड,उसके जीव ,ब्रह्मा- विश्नू -शिवजी , देव,ऋषि व अन्य ब्रह्मांड  सब कुछ नष्ट हो जाते हैं।
कबीर .इतनी लंम्बी उमर .मरेगा अंत रे
सतगुरू मिले . तो पहुँचेगा सतलोक रे.……………………

केवल सतलोक व ऊपर के तीनों लोक अगम लोक,अलख लोक,अनामी लोक ही शेष रहते हैं।
सतपूरुष के बनाये विधान द्वारा सतपूरुष के पुत्र अचिन्त द्वारा ये तीसरी दिव्य महाप्रलय और फ़िर स्रषटि रची जाती है. किंतु सतलोक गये जीव फ़िर जन्म -मरण में  नही आते है.
 इस प्रकार कबिर्देव परमात्मा ने कहा है कि करोड़ों ज्योति निरंजन काल-ब्रह्म)मर लिए मेरी एक पल भी आयु कम नहीं हुई है अर्थात् मैं वास्तव में अमर पुरुष कबिर्देव हुँ|

सर्वजन हित में जारी.
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